गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

ट्विटर-फ़ेसबुक से क्रांति? बिल्कुल नहीं.

इस पोस्ट का शीर्षक मेरा कथन नहीं बल्कि मैल्कम ग्लैडवेल की दृढ राय है. उन्होंने न्यूयॉर्कर पत्रिका के ताज़ा अंक में बड़े ही दमदार तर्कों के साथ बताया है कि 'Why the revolution will not be tweeted.'

पहले दो पंक्तियाँ ग्लैडवेल के बारे में. वे कोई 'बस यूं ही' टाईप कलमघिस्सू नहीं हैं, बल्कि उनकी पहचान गंभीर और खोजी लेखों के लिए प्रसिद्ध पत्रिका न्यूयॉर्कर की एक प्रभावशाली आवाज़ के रूप में है. ग्लैडवेल The Tipping Point नामक बेस्टसेलर के लेखक के रूप में भी चर्चित रहे हैं.

ट्विटर और फ़ेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग वेबटूल्स के सामाजिक आंदोलनों के संदर्भ में सीमित प्रभाव को उजागर करने के लिए ग्लैडवेल ने अपने Small Change शीर्षक लेख में अमरीकी नागरिक अधिकार आंदोलन के उदाहरणों का जम कर उपयोग किया है. उनका कहना है कि सिर्फ़ वेबटूल्स के सहारे ऐसे किसी आंदोलन की कल्पना भी नहीं की जा सकती, जहाँ आंदोलनकारियों के लिए ख़तरे वास्तविक हों और उनके मज़बूत इरादे की बार-बार परीक्षा ली जाती हो.

वेबटूल्स आधारित विरोध को ग्लैडवेल Wiki-activism बताते हैं. उनकी राय है कि व्यापक सामाजिक परिवर्तनों के संदर्भ में फ़ेसबुक 'likers', धरना पर बैठने वालों की बराबरी करना तो दूर, विरोध मार्च में भागीदारी दर्ज कराने वालों जितना प्रभाव भी नहीं डाल सकते.

विकि-एक्टिविज़्म की इस कमज़ोरी के पीछे ग्लैडवेल जो कारण देखते हैं, उनमें प्रमुख हैं- प्रतिबद्धता की कमी, ख़तरा नहीं के बराबर होना तथा भागीदारों के बीच likers/followers वाला कमज़ोर बंधन. ग्लैडवेल के अनुसार असल ज़िंदगी के जनांदोलनों में साझा अनुभवों और हाइरार्किकल नेतृत्व  जैसे कारकों की बहुत बड़ी भूमिका होती है, जबकि ये बातें विकि-एक्टिविज़्म में नदारद होती हैं.

ग्लैडवेल के अनुसार सोशल नेटवर्किंग वेबटूल्स कुछ ख़ास तरह के संचार में लाभदायक हो सकते हैं. जैसे- इनके ज़रिए समान विचारधारा के लोगों को किसी सामाजिक आयोजन के लिए अलर्ट करना आसान है. इसी तरह इनके ज़रिए 'weak tie' समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है, जैसे किसी ज़रूरतमंद के लिए अस्थिमज्जा दानदाता को ढूंढना.

ग्लैडवेल के ही शब्दों में- Social networks are effective at increasing participation- by lessening the motivation that participation requires. In other words, Facebook activism succeeds not by motivating people to make a real sacrifice but by motivating them to do the things that people do when they are not motivated enough to make a real sacrifice.

ईरान में पिछले साल विपक्ष के नाकाम रहे ग्रीन मूवमेंट को ग्लैडवेल विकि-एक्टिविज़्म के अप्रभावी रहने के ताज़ा उदाहरण के रूप में पेश करते हैं.

ईरान से जुड़ा एक मिलता-जुलता उदाहरण मुझे भी याद आता है, जिसमें वेबटूल्स के ज़रिए तो नहीं लेकिन विदेशी मीडिया के ज़रिए क्रांति कराने की बात थी. कुछ साल पहले बीबीसी ने फ़ारसी भाषा में टेलीविज़न शुरू किया तो ऑक्सफ़ोर्ड के एक स्वनामधन्य विश्लेषक ने एक बड़ा-सा लेख लिखा कि कैसे नया चैनल ईरान में सत्ता पर पकड़ रखने वाले मुल्लाओं के ख़िलाफ़ जनांदोलन खड़ा करने में मुख्य भूमिका निभाएगा. विश्लेषक महोदय इस तथ्य की अनदेखी कर गए कि न तो बीबीसी फ़ारसी चैनल का ईरान में एक भी संवाददाता होगा, और न ही चैनल को ईरान में वैध रूप से देखा जा सकेगा.

सीधी-सी बात है, जब जक ईरानी जनता का एक बड़ा वर्ग पूरी प्रतिबद्धता के साथ एक लंबी लड़ाई की शुरुआत नहीं करता, आप्रवासी ईरानियों के ट्विटर-फ़ेसबुक संदेशों और विदेशी मीडिया के सहारे ईरान के शासक वर्ग को कोई बड़ी चुनौती नहीं दी जा सकती.

सोमवार, जुलाई 05, 2010

होम्योपैथी के पक्ष में एक दमदार आवाज़

होम्योपैथिक चिकित्सा पद्धति को मानने वाले जितने लोग हैं, उसे नहीं मानने वालों की संख्या उनसे कम नहीं होगी. हालाँकि  विगत कुछ महीनों से होम्योपैथी के विरोधियों का पलड़ा भारी दिख रहा है, क्योंकि उनके अभियान से कई नामी-गिरामी चिकित्सक ही नहीं, बल्कि कई प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिकाएँ भी जुड़ गई लगती हैं.

ऐसे में होम्योपैथी के पक्ष में चिकित्सा के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार विजेता एक वैज्ञानिक का सामने आना महत्वपूर्ण है. फ़्रांस के इस महानुभाव का नाम है- ल्यूक मोन्टैग्नीर. (वैसे कई नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक या तो होम्योपैथी के ख़िलाफ़ बयान दे चुके हैं, या फिर वैसे बयानों से सहमति जता चुके हैं.)

मोन्टैग्नीर का परिचय देने से पहले ये स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि उन्होंने होम्योपैथी का प्रत्यक्ष तौर पर बचाव नहीं किया है, बल्कि उनका एक नया सिद्धांत सीधे-सीधे होम्योपैथी का सिद्धांत नज़र आता है.

प्रोफ़ेसर ल्यूक मोन्टैग्नीर एक विषाणु विशेषज्ञ हैं. उन्होंने 1980 के दशक में अपने अनुसंधान के ज़रिए एचआईवी की खोज की और उसके एड्स से संबंध को साबित किया. इस महती कार्य के लिए उन्हें 2008 में चिकित्सा विज्ञान क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया.

पिछले सप्ताह जर्मनी में एक अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा सम्मेलन में (जहाँ 60 नोबेल पुरस्कार विजेताओं समेत क़रीब 800 वैज्ञानिक जमा हुए थे) प्रोफ़ेसर मोन्टैग्नीर ने विषाणु संक्रमण का पता लगाने की एक नई पद्धति का उल्लेख किया. जटिल वैज्ञानिक शब्दावली वाले  उनके व्याख्यान के मूल में उनका ये दावा है कि संक्रमित करने में सक्षम जीवाणु या विषाणु (एचआईवी समेत) के डीएनए युक्त घोल से कम फ़्रीक़्वेंसी की रेडियो तरंग निकलती है. इस घोल के संपर्क में आने वाले साधारण पानी में भी अल्प मात्रा में उस रेडियो तरंग की छाप देखी जा सकती है.

दूसरे शब्दों में कहें तो प्रोफ़ेसर मोन्टैग्नीर की दलील ये है कि किसी घोल को कितना भी पतला किया जाए (यहाँ तक किसी मूल डीएनए के निशान ग़ायब होने तक) उसमें उन तत्वों की कुछ-न-कुछ छाप रह जाती है जिनसे कि विगत में उसका संपर्क हुआ है. उस छाप को या उस रेडियो तरंग को पहचान कर अंतत: बीमारी विशेष का पता लगाया जा सकता है.

उपरोक्त विवरण भले ही टेक्निकल लग रहा हो, (और प्रोफ़ेसर मोन्टैग्नीर ने होम्योपैथी का नाम भी नहीं लिया) लेकिन मोटे तौर पर देखा जाए तो ये होम्योपैथी के काम करने के तरीक़े से मिलता-जुलता है.

आने वाले महीनों और वर्षों में ये देखने वाली बात होगी कि क्या एचआईवी संबंधी खोज से लाखों एड्स पीड़ितों को जीवनदान दिलाने में सहायक प्रोफ़ेसर मोन्टैग्नीर अपनी नई खोज से होम्योपैथी को एक ठोस और सर्वमान्य वैज्ञानिक आधार दिला सकेंगे!

रविवार, मार्च 14, 2010

हैप्पी पाइ डे !

14 मार्च को गणित के एक महत्वपूर्ण पात्र के दिवस के रूप में मनाया जाता है, ये आज एक अख़बार में छपे लेख से पता चला. जी हाँ, हर साल 14 मार्च को पाइ दिवस (Pi Day) के रूप में मनाया जाता है.

इंटरनेट पर सर्च किया तो पता चला ये 22वाँ पाइ दिवस है. यानि पाइ भले ही बहुत पुराना हो लेकिन उसका दिवस मनाने की परंपरा नई है.

किसने शुरू किया पता नहीं लेकिन अधिकांश आधुनिक दिवसों की तरह अमरीका से ही शुरू हुआ होगा इसमें कोई संदेह नहीं क्योंकि यह Pi के बिल्कुल शुरुआती मान 3.14 से जुड़ा हुआ है, यानि अमरीका में प्रचलित तरीके से महीने और दिन को सजाने पर- तीसरे महीने का चौदहवाँ दिन - यानि 14 मार्च. संयोग से ये तारीख़ अल्बर्ट आइंस्टीन का जन्मदिन भी है.

पाइ का उपयोग यों तो विज्ञान के लगभग हर क्षेत्र में होता है, लेकिन आमतौर पर लोगों का पाइ से सबसे पहला परिचय गणित की कक्षा में वृत का क्षेत्रफल निकालने में प्रयुक्त समीकरण के ज़रिए होता है:




क्षेत्रफल=पाइ x त्रिज्या का वर्ग.

पाइ दरअसल वृत की परिधि और व्यास का अनुपात है. अंग्रेज़ी स्कूलों में इसे कुछ इस तरह कविता के रूप में सिखाया जाता है-

"If inside a circle a line

Hits the center and goes spine to spine

And the line's length is "d"

the circumference will be

d times 3.14159 "

बड़ी से बड़ी अभाज्य संख्याओं को ढूंढने के समान ही गणितप्रेमियों के बीच पाइ का शुद्धतम मान ज्ञात करने की होड़ लगी रहती है. यों तो सामान्य कार्यों के लिए 3.14 के मान से ही काम चल जाता है, लेकिन इससे बेहतर परिणाम पाना चाहते हैं तो 3.14159 का उपयोग करें.

इससे भी आगे जाना है तो अंग्रेज़ी के इस वाक्य की सहायता लें- How I want a drink, alcoholic of course, after the heavy lectures involving quantum mechanics! इस वाक्य के हर शब्द के अक्षर का नंबर लिखें जैसे How-3, I-1, Want-4 और इसी तरह आगे. ऐसे में जो नंबर बनेगा उसमें बायें से एक अंक के बाद दशमलव लगाने पर Pi का मान आएगा:-  3.14159265358979

लेकिन शुद्धतम संभव परिणाम पाना है तो गणना करने के लिए सुपर कंप्यूटरों को लगाना होगा. वैसे पाइ का 27 खरब अंकों वाला मान उपलब्ध है. इसी साल एक फ़्रांसीसी कंप्यूटर विज्ञानी ने ये कमाल कर दिखाया.

यदि पाइ के उपलब्ध शुद्धतम मान को बिना रुके (प्रति सेकेंड एक अंक) बोला जाए तो इस काम में 85 हज़ार वर्ष लगेंगे.

उल्लेखनीय है कि दशमलव पद्धति में पाइ के बड़े से बड़े मान में भी अंकों के दोहराव का कोई पैटर्न ज्ञात नहीं है.

पाइ का क़रीब चार हज़ार वर्षों का इतिहास है, लेकिन इसे ग्रीक वर्णमाला से पाइ नाम और संकेत मिला 1706 में. बेबीलोन में 1800 ईसा पूर्व में पाइ का मान 3 रखा गया था.

गणित, भौतिकी और इंजीनियरिंग में पाइ एक महत्वपूर्ण नियतांक के रूप में काम आता है. पुल और सुरंग बनाने से लेकर विमानों की डिज़ायनिंग और ग्लोबल पोज़िशनिंग जैसे काम इसके बिना संभव नहीं हैं. यहाँ तक कि 27 खरब अंकों वाले पाइ के मान का भी उपयोग है- सुपरकंप्यूटरों के परीक्षण में कि क्या महासंगणक मशीनें ठीक से काम कर रही हैं!

रविवार, जनवरी 31, 2010

भारत के ग़लत नक़्शों के कुछ नमूने

भारत के ग़लत नक़्शे के विवाद की कुछ ख़बरें पढ़ने के बाद मैंने इस बारे में वेब पर कुछ देर सर्च किया. मुख्य तथ्य ये सामने आया कि पाकिस्तान और चीन की छोड़ दें तो भारत के मानचित्र का सर्वाधिक ग़लत चित्रण अमरीका करता है. वही अमरीका, आजकल जिसके साथ गाढ़ी मित्रता की मिसालें देते हुए भारत थकता नहीं है.

ये भी पता चला कि विदेशी प्रकाशनों और वेबसाइटों के अलावा भारत में भी राष्ट्र के मानचित्र को ग़लत दिखाने के अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं. कुछ ग़लतियाँ अनजाने में होती हैं, तो कुछ के पीछे विदेशी स्वामित्व वाली ग्राफ़िक्स कंपनियों की नादानी (या शरारत?) होती है.

ग़लत मानचित्रों पर नज़र डालने से पहले आइए देखते हैं भारत सरकार द्वारा स्वीकृत मानचित्र. (आगे के मानचित्रों में सीधे ग़लतियों तक पहुँचने के लिए कृपया इस सही नक़्शे के शिखर पर ग़ौर करें.)-


ग़लत मानचित्रों के कुछ नमूने -


(अमरीका के अन्य सरकारी विभागों, मीडिया संस्थानों और विश्विद्यालयों में भी इसी के जैसे भारतीय नक़्शे प्रचलित हैं.)




(भारत में ब्रितानी उच्चायोग ने इस नक़्शे वाले पेज पर नीचे जाकर एक डिस्क्लेमर का लिंक(डिस्क्लेमर नहीं, उसका लिंक!) दिया है जो कहता है- This map should not be considered an authority on the delimitation of international or other boundaries nor on the spelling or use of place and feature names. This map is not to be taken as necessarily representing the views of the UK Government on boundaries or political status. यदि भारत उत्तरी आयरलैंड को ब्रिटेन के बजाय आयरलैंड की सीमा में डाल कर ऐसा ही कोई लिंक लगा दे, तो ब्रितानी सरकार शायद चुप नहीं बैठेगी.)






(हालाँकि आईएफ़सीएम के 'लोगो' में सही नक़्शे के अंश का उपयोग किया गया है.)




शटरस्टॉक की वेबसाइट पर भारत के ग़लत नक़्शों के ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं. (सही नक़्शे की प्रतिकृतियाँ भी हैं.)