सोमवार, मई 30, 2005

सीमारहित कश्मीर का सपना

भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सीमारहित कश्मीर का शिगूफ़ा छोड़ा है. उनका कहना है कि कोई कश्मीरी श्रीनगर में रहे या मुज़फ़्फ़राबाद में, उसके पूरे कश्मीर में बेरोकटोक आने-जाने लायक स्थिति बनाने की तरफ़ भारत और पाकिस्तान मिलकर क़दम बढ़ा सकते हैं.

यहाँ ये स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि मनमोहन सिंह और पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ये क़दम बढ़ा भी चुके हैं. हाँ, ये पहली बार है कि मनमोहन सिंह ने इस तरह की किसी प्रक्रिया में भारत के शामिल होने का संकेत दिया है. जबकि मुशर्रफ़ तो कई बार खुलेआम 'सॉफ़्ट बॉर्डर' की बात कर चुके हैं.

चलिए अच्छा है कि कश्मीर में शांति की दिशा में या फिर कश्मीरियों को सहूलियतें देने की दिशा में दोनों सरकारें मिलकर कुछ करना चाह रही हैं. लेकिन ये तदर्थवाद नहीं है? और सीमारहित कश्मीर के अस्तित्व में आने के बाद एक संप्रभु कश्मीर की माँग उठने में कोई देरी होगी? और एक संप्रभु कश्मीर में इस्लामी चरमपंथियों की पैठ बनाते कितनी देर लगेगी?

शुक्रवार, मई 20, 2005

चयन का नाटक तो नहीं

ऑस्ट्रेलिया के पूर्व क्रिकेट कप्तान ग्रेग चैपल को दो वर्षों के लिए भारतीय क्रिकेट टीम का कोच चुन लेने की घोषणा की गई है.

पिछले कई दिनों से देश-विदेश में इस बात की खुली चर्चा थी कि साक्षात्कार भले ही चार खिलाड़ियों का हो रहा हो, चुने जाएँगे चैपल ही. शायद इसी खुले रहस्य ने पाँचवें उम्मीदवार संदीप पाटिल को अपना नाम वापस लेने के लिए बाध्य किया. लेकिन तीन अन्य उम्मीदवार मोहिन्दर अमरनाथ, डेसमंड हेंस और टॉम मूडी भारतीय क्रिकेट बोर्ड के नाटक में फंस ही गए.

बोर्ड के एक अधिकारी ने तो साक्षात्कार से पहले ही अमरनाथ की देसी कोच बनाम विदेशी कोच का विवाद खड़ा करने के कोशिश पर अपनी नाख़ुशी भी ज़ाहिर कर दी. इसी तरह कप्तान सौरभ गांगुली और बोर्ड पर अपना असर रखने वाले जगमोहन डालमिया का चैपल के पक्ष में होने की बात भी जगज़ाहिर थी.

चुने जाने के बाद चैपल ने भारतीय कोच के काम को चुनौती भरा बताया है. कोई शक नहीं चैपल चारों उम्मीदवारों में सबसे ज़्यादा कुशल हैं, लेकिन यदि उन्हे चुनना ही था तो फिर इंटरव्यू का नाटक क्यों खेला गया.

गुरुवार, मई 12, 2005

सहाराश्री की 'गुमशुदगी'

भारत की सबसे बड़ी निजी कंपनियों में से एक सहारा इंडिया के प्रमुख सुब्रत राय के बारे में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म रहना कोई आश्चर्यजनक नहीं है. अपने आप को सहाराश्री कहने वाले सुब्रत राय पहली अप्रैल से देखे नहीं गए हैं. उनके कथित रूप से ग़ायब होने पर लोगों की चिंता स्वाभाविक है--इसलिए नहीं कि वह इतने बड़े पूँजीपति हैं, बल्कि इसलिए कि उनकी कंपनी में ग़रीब-गुरबों ने अपनी ज़िंदगी भर की कमाई जमा कर रखी है.

सहारा इंडिया अपने बही-खाते गुप्त रखती है. इसने ख़ुद को भारतीय शेयर बाज़ार में भी निबंधित नहीं करा रखा है, कि इस पर भारतीय प्रतिभूति नियामक बोर्ड या सेबी नज़र रख सके.

ऐसे में सहारा इंडिया के प्रमुख(कंपनी की शब्दावली में मुख्य प्रबंध कार्यकर्ता)के सार्वजनिक जीवन से ग़ायब होने से सहारा में अपनी बचत का निवेश करने वालों का चिंतित होना स्वाभाविक है. चिंता सहारा इंडिया के विभिन्न उपक्रमों में काम करने वाले लाखों लोगों को भी है. लाखों परिवारों की रोज़ी-रोटी और जमा-पूँजी दाँव पर लगे होने से भारत सरकार भी निश्चय ही चिंतित ही होगी.(कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार मुलायम-अमर जोड़ी से सहाराश्री की नजदीकी से यों भी नाख़ुश रहती होगी.)

ज़ाहिर है लाखों-करोड़ों लोग सुब्रत राय के अच्छे स्वास्थ्य की कामना कर रहे होंगे क्योंकि उनका भविष्य सहाराश्री की सलामती से जुड़ा हुआ है. ऐसे में सहारा इंडिया के शीर्ष नेतृत्व से अपेक्षा की जानी जायज़ है कि वे सुब्रत राय के बारे में सही और बिल्कुल ताज़ा जानकारी दें.

सोमवार, मई 09, 2005

कब जाएँगे ब्लेयर

ब्रिटेन के संसदीय चुनाव में अपेक्षा के अनुरूप टोनी ब्लेयर अपनी लेबर पार्टी को ऐतिहासिक लगातार तीसरी जीत दिलाते हुए सत्ता में वापस लौटे हैं. लेकिन उनकी आभा मंद हो चुकी है.

वैसे भी संसद में उनका बहुमत पिछली बार के 161 के मुक़ाबले इस बार 67 का रह गया है. लेबर को पिछले चुनाव से 47 कम सीटें मिली हैं. ब्लेयर की सरकार आधुनिक काल में ब्रिटेन की पहली सरकार है कि जिसने लोकप्रिय मत का मात्र 35.2 प्रतिशत हासिल कर अगले कार्यकाल में प्रवेश किया है.

जीत के बाद ब्लेयर ने माना कि इराक़ युद्ध संबंधी उनकी नीति के कारण पारंपरिक लेबर समर्थकों के मत भारी संख्या में अन्य दलों को गए हैं.

परिणामों से ज़ाहिर है कि लेबर से छिटके ज़्यादातर मत लिबरल डेमोक्रेट्स को मिले हैं. शुरू से ही इराक़ युद्ध का मुखर विरोधी रही इस पार्टी को कुल 62 सीटों पर सफलता मिली है. यह इस पार्टी के अब तक के सबसे अच्छे प्रदर्शनों में से है. इसे कुल 22 प्रतिशत मत मिले हैं, और पहले से 11 ज़्यादा सीटें. ऐसे में पार्टी नेता चार्ल्स केनेडी का कहना सही है कि ब्रिटेन की राजनीति अब दो-दलीय नहीं रही है, और त्रिदलीय राजनीति की पुख़्ता नींव पड़ चुकी है.

लिबरल डेमोक्रेट्स को मिले समर्थन का परोक्ष लाभ उठाया मुख्य विपक्ष कंज़र्वेटिव पार्टी ने. उसे मिले 32.3 प्रतिशत मत लगभग पिछले चुनाव जितने ही हैं, लेकिन पार्टी को इस बार 33 ज़्यादा सीटें मिली हैं. ज़ाहिर जहाँ लेबर से छिटके वोट लिबरल डेमोक्रेट्स को सीट नहीं दिला सके वहाँ कंज़र्वेटिव को इसका फ़ायदा मिला.

अब जबकि कंज़र्वेटिव नेता माइकल हॉवर्ड ने पार्टी को सत्ता तक पहुँचाने में नाकाम रहने की ज़िम्मेदारी लेते हुए पद छोड़ने की घोषणा की है, इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि ब्लेयर कब पार्टी और सरकार की कमान अपने वित्त मंत्री गॉर्डन ब्राउन को सौंपेंगे.

गुरुवार, मई 05, 2005

कब सुध लेगी सरकार

हिन्दी के मशहूर कवि त्रिलोचन को उत्तरप्रदेश सरकार ने गाँधी पुरस्कार देने की घोषणा की है. इससे पहले भी उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं.

लेकिन क्या पुरस्कार देने मात्र से ही किसी साहित्यकार या कलाकार के प्रति सरकार और समाज की ज़िम्मेदारी पूरी हो जाती है?

त्रिलोचनजी हरिद्वार में बीमार पड़े हैं. अपने परिजनों के अलावा उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है.

ऐसा ही एक अन्य महान साहित्यकार अमृता प्रीतम के साथ हो रहा है.

आख़िर कब जगेगी हमारी प्रगतिशील सरकार? क्या समाज को और सैंकड़ो की संख्या में सक्रिय सामाजिक संगठनों को अपने साहित्यकारों की सुध लेने के लिए कुछ करना नहीं चाहिए? कम से कम हम सरकार पर दबाव तो डाल ही सकते हैं. वरना हमें पता है कि त्रिलोचनजी जैसे व्यक्ति किसी से सहायता माँगने नहीं जाएँगे. उनकी लिखी इन पंक्तियों को तो देखिए- भाव उन्हीं का सबका है जो थे अभावमय, पर अभाव से दबे नहीं जागे स्वभावमय.

मंगलवार, मई 03, 2005

ब्रितानी एशियाई

ब्रिटेन से बाहर रहने वाले लोगों के लिए यह एक दिलचस्प तथ्य होगा कि यहाँ भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल के लोगों को 'दक्षिण एशियाई' या 'साउथ एशिन्स' नहीं बल्कि सिर्फ़ 'एशिन्स' कहा जाता है. तो इस बार के ब्रितानी संसदीय चुनावों में हम एशियाइयों की क्या स्थिति है.

आप्रवास या अवैध आप्रवास को विपक्षी कंज़र्वेटिव पार्टी ने यहाँ मुख्य मुद्दा बनाया है. और आश्चर्य की बात है कि 60 प्रतिशत एशियाई भी मानते हैं कि ब्रिटेन में ज़रूरत से ज़्यादा आप्रवासी आ चुके हैं और अब इस पर रोक लगनी ही चाहिए. पता नहीं ऐसी मानसिकता क्यों बन जाती है कि हम तो बेहतर आर्थिक अवसरों का लाभ उठाएँ और बाकियों को ये मौक़ा नहीं मिले.

इस बार विभिन्न पार्टियों ने कोई 70 एशियाई उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है जिनमें कई भारतीय भी हैं. आमतौर पर एशियाई आप्रवासियों के वोट लेबर पार्टी को मिलते रहे हैं लेकिन इस बार इराक़ युद्ध के कारण लेबर नेता और प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की अलोकप्रियता के चलते इनके वोट किसी एक पार्टी को थोक भाव में शायद ही मिले.

इतना तो तय है कि पाकिस्तानी आप्रवासियों के वोट या तो लिबरल डेमोक्रेट्स उम्मीदवारों को जाएँगे या उन उम्मीदवारों को जो लेबर पार्टी को नुक़सान पहुँचाने में सक्षम दिखते हों. उल्लेखनीय है कि लिबरल डेमोक्रेट्स ही एकमात्र ब्रिटिश पार्टी है जिसने शुरू से ही इराक़ पर हमले का विरोध किया है. रिस्पेक्ट्स पार्टी भी इराक़ युद्ध के ख़िलाफ़ है लेकिन इसका गठन युद्ध के बाद हुआ है और कुछ जगहों पर ही इसने उम्मीदवार खड़े किए हैं.

ब्रितानी भारतीयों के बारे में दुखद तथ्य ये है कि इनके पास पैसा है, प्रतिष्ठा है, योग्यता है...लेकिन पर्याप्त राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं. शायद इसके पीछे कारण यह हो सकता है कि ब्रितानी भारतीय समुदाय में ज़्यादातर गुजराती या पंजाबी मूल के हैं जो पारंपरिक रूप से पैसे कमाने को अपना मुख्य ध्येय मानते हैं. उदाहरण के लिए यदि बिहारियों की संख्या पर्याप्त होती तो निश्चय ही वे खुल कर ब्रितानी राजनीति में भाग लेते.

रविवार, मई 01, 2005

ब्रितानी चुनाव

ब्रिटेन के आम चुनाव में प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर लगातार तीसरी बार अपने नेतृत्व में लेबर पार्टी को जीत दिलाने के लिए आशान्वित दिखते हैं. लेकिन पाँच मई को होने वाले मतदान से पाँच दिन पहले उन्होंने भी मान लिया है कि उनकी पार्टी का बहुमत शायद उतना न रहे. ब्लेयर ने माना कि उनपर लगाए जाने वाले आरोपों से आख़िरकार उनकी पार्टी को कुछ-न-कुछ नुक़सान होगा.

ब्लेयर पर सबसे बड़ा आरोप है कि उन्होंने ब्रिटेन को इराक़ युद्ध में झोंकने के लिए बार-बार झूठ का सहारा लिया.

लेबर पार्टी के लगातार तीसरी बार जीतने के भरोसे के पीछे मुख्य विपक्ष कंज़र्वेटिव पार्टी की दिशाहीनता का बड़ा हाथ है.मतलब स्थिति कुछ ऐसी ही है जैसे बँटे विपक्ष का फ़ायदा उठाकर भारत में वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए का राज करना.

पारंपरिक लेबर समर्थकों तक में ब्लेयर की अलोकप्रियता का मुख्य कारण है- इराक़ युद्ध. लेकिन कंज़र्वेटिव नेता माइकल हॉवर्ड ने अभी पिछले सप्ताह अपना यह रुख़ दोहरा कर अपना नुक़सान कर लिया कि चाहे महाविनाशकारी हथियार मिलते या नहीं, उनकी पार्टी हमेशा ही इराक़ पर हमले का समर्थन करती.

ऐसी स्थिति में हमेशा से ब्रितानी राजनीति में तीसरी पार्टी मानी जाती रही लिबरल डेमोक्रेट्स ही एकमात्र पार्टी दिखती है जो कि पाँच मई के चुनाव में अपना वोट प्रतिशत और सीटों की संख्या बढ़ने की उम्मीद कर सकती है. लिबरल डेमोक्रेट्स नेता चार्ल्स केनेडी ने शुरू से ही इराक़ पर हमले का विरोध किया. इसका भारी फ़ायदा उपचुनावों में उनकी पार्टी ने उठाया भी. इस बार लिबरल डेमोक्रेट्स के संभावित शानदार प्रदर्शन से अंतत: साबित हो जाएगा कि ब्रितानी राजनीति के दोदलीय होने के दिन गए और आ गया है त्रिपक्षीय राजनीति का दौर.